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12 अक्तूबर 2013

एक महक मेरी सी ..

लघु कथा 

एक महक मेरी सी ..
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तेज तेज कदमो से घर में दाखिल हुयी और लगता था जैसे कोई अभी भी पीछा कर रहा हैं दुप्पट्टा फेंक कर वही धम्म से बैठ गयी उफ़ इसी लिय मैं नही मिलना चाहती थी अपने दायरों को जानती थी . जरा भी नही बदलाहोगा वो वही अन्दर तक सवाल करती भेदती उसकी आँखे .बिखरे से बाल कि मन करता कि अपने हाथ से उनको सही कर दूँ चुप था पर कितना बोल रहे थे उसके थरथराते लब , आह .जैसे ही उसने पलट कर मुझे देखा वक़्त थम क्यों नही गया उसी पल , रश्क हुआ उस पल किसी की किस्मत पर जिसकी मुठी में मेरी किस्मत का सितारा था . बहुत मन था पहली मंजिल पर उसी कोने वाले मेज पर दोनों फिर से जा बैठे पर यह कमबख्त दिल कुछ सोचता हैं जुबान कुछ कह जाती हैं बहुत कुछ कहना था पर सब अनकहा ही रह गया देखती रही उसकी आँखों में वही पहला सा नशा , सुनती रही अपने लिय उसके मीठे लफ्ज़ और महसूस करती रही अपने चारो तरफ लिपट ती उसकी महक जो मदहोश कर रही थी भर रही थी मैं अपने भीतर उस महक को एक उन्माद की उम्मीद की तरह .... जिन्दगी भी कैसे होती हैं जिसके साथ  सपने देखे जाते हैं एक दिन वोह खुद सपना बन जाता हैं  दिल था कि उसके साथ रहना चाहता था परन्तु समय का तकाज़ा कुछ और था  और इतने ही शब्द बोले  रूकती  और भी  पर वक़्त हो गया घर जाने का कह कर उठ गयी .काफी हैं उसकी खुशबू एक उम्र को जीने के लिय कम से कम अब करवट बदल कर सोने पर एकाकी पन तो नही होगा साथ में होगी एक अनदेखी अनकही सी महक लिपटी हुयी .मर्यादों में रहकर मिल लेना पाप नही होता न .दिल के पाप अपने लिय पुन्य ही होते हैं कभी कभी ....... मरते जीवन में प्राण जो डालते हैं ........................नीलिमा शर्मा

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