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11 अप्रैल 2014

संस्कार और रिश्तो को निभाने की काबिलियत

"उफ़ ! कितना काम हैं , मैं तो जैसे नौकरानी बन जाने के लिय आई हूँ इस घर में , हर कोई आता हैं हुक़म देकर चला जाता हैं यह बना दो , वोह बना दो "
मीनू घर भर को समेट'ते हुए खुद से बडबडा रही थी | कल ननद जी आरही हैं अपने बेटे के लिय लड़की देखने के लिय , अब मायके में मीन मेख निकालना तो बनता हैं उनका ,
घर को साफ करके उसने ननद की नजर से घर को देखने की कोशिश की और खुद को कहा " माँ ज्यादा घर साफ़ रखती थी ना भाभी , और खुद से खुद मुस्कुराती हुयी नहाने चल दी
पूरा घर गुलज़ार हो उठा था चहक से , बेटिया कितनी भी उम्र की हो जाए मायके में उनकी आवाज़ चहकती सी लगती हैं , लड़की वाले मिलने के लिय आ चुके थे , रसोई घर से प्लेटो का आना जाना लगा हुआ था , मीनू के अलावा सब लोग बैठक में जमे हुए थे अपना नाम सुनकर मीनू दरवाज़े की ओट में खड़ी हो गयी
" देखिये !! ऐसा कुछ भी नही हैं , जरुरी नही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सब लोग दबंग ही हो या घर भर में रॉब जमाते फिरते हो , अगर आपने अपनीबेटी को अच्छे संस्कार दिए होंगे तो वोह घर बनाकर रखेगी नही तो मैं किसी भी शहर की लड़की ले आऊ क्या गारन्टी हैं की वोह घर बनाकार रखेगी , मानती हूँ कि हर शहर का अपना एक कल्चर होता हैं संवाद की अदायगी होती हैं पर घर के संस्कार सबसे उपर होते हैं | हमारी भाभी एक बहुत ही छोटे शहर की हैं इसने जैसे घर सम्हाला हैं कोई नही कह सकता कि यह किसी से कमतर हैं "
मीनू की आँखे अविरल बहने उठी यह वही ननद रानी हैं जो कहती थी छोटे शहर की लड़की हो चुप रहा करो .हमने तो कान पकडे अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लड़की ना लाये कभी
सच ही तो हैं इंसान के

संस्कार और रिश्तो को निभाने की काबिलियत मायने रखती हैं रहने की जगह नही